अनोखा बंधन
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अनोखा बंधन

Updated: Oct 19, 2023

मनुष्य अपने जीवनकाल में न जाने कितने ही “रिश्तों के बंधन” में बँधता हैI किन्तु ऐसा रिश्ता जिसमे कोई अपेक्षा या उम्मीद की चाह न हो, केवल सम्पूर्ण भाव हो, मात्र भाग्यशाली इंसान को ही हासिल होते हैंI ऐसे अनमोल, श्रेष्ठ ”अनोखे बंधन” उनके जीवन में वरदान साबित होते हैंI

 
स्नेहा बोयापल्ली द्वारा कवर फ़ोटो

“अरे! सोनल ये कैसी नाराज़गी है? कुछ बोलोगी तो सही?” सोनल के पीछे-पीछे चलते हुए विशाल ने बड़े प्यार से पूछा। “देखो, कहीं ऐसा न हो कि मैं पुकारता रह जाऊँ और तुम इतनी दूर चली जाओ कि मेरी आवाज़ तुम तक पहुँच ही न पाए।” विशाल की बात सुनते ही सोनल झट से पलटकर बोली “आवाज़ तो क्या मुझे तो तुम्हारी दिल की धड़कने भी साफ़ सुनाई देती है, फिर दूरियों से रूह के रिश्ते और भी प्रगाढ़ हो जाते हैं" सोनल ने संयत स्वर में कहा।


“खैर यह बताओ आज फिर तुम मेरा बर्थ-डे भूल गए ना?”


“तुम्हारा जन्मदिन मैं कैसे भूल सकता हूँ?” कहते हुए विशाल ने सोनल के सामने सरप्राईज़ गिफ्ट पेश किया। सोनल झट से गिफ्ट विशाल के हाथों से छीनते हुए बोली “बड़े सरप्राईज़ देते हो, एक दिन मैं तुम्हें ऐसा सरप्राईज़ दूँगी कि देखते रह जाओगे।”


“जाने भी दो, विशाल का दिल कितना विशाल है ये तुम क्या जानोगी?”


“सोनल आज किसी बड़े रेस्तोरां में चलते हैं तुम्हरा बर्थ-डे सेलिब्रेट करने” विशाल ने प्रस्ताव रखा। रेस्तरां के रूमानियत भरे माहौल मे सोनल ने विशाल से पूछा ”शादी के बारे में क्या सोचा है विशाल?”


“बस नये जॉब मिलते ही मैं शादी की बात करूँगा घर में, तुम चिंता मत करो।” विशाल ने दिलासा देते हुए उत्तर दिया। विधि के विधान से अनभिज्ञ, सोनल और विशाल अनजान थें कि ये उनकी आखरी मुलाकात है। खुशियों की बारिश में सराबोर होकर जैसे ही सोनल घर पहुँची उसने देखा कि माँ-पिताजी किसी गंभीर विषय पर चर्चा कर रहे थें। सोनल को सामने देख बाबूजी का चेहरा एकाएक दमक उठा।


“सौ साल की उम्र होगी तेरी, मैं और तुम्हारी माँ तेरी ही बात कर रहे थें। वो भोपाल वाले वर्माजी, बड़ा ही अच्छा रिश्ता लेकर आये हैं तुम्हारे लिये। लड़के और उसके खानदान की तारीफ़ करते नहीं थक रहे थें वर्माजी। उन्हें तुम पसंद हो, बस हमारी ”हाँ” का उन्हें इंतज़ार है। देखते-ही-देखते पल में पराई हो जाएगी हमारी बेटी” कहते वक़्त बाबूजी का हृदय विह्वल हो उठा। अपने रिश्ते की बात सुनकर सोनल स्तब्ध रह गयी, आँखों के सामने अँधेरा छा गया, ऐसा लगा मानो पैरों तले ज़मीन खिसक गयी हो। कुछ देर पश्चात् स्वयं को सँभालते हुए सोनल ने हिम्मत जुटाकर अपने मन की बात पिताजी के सामने रखी "बाबूजी, मैं आपसे कुछ कहना चाहती हूँ, मैं और विशाल एक-दूसरे को पसंद करते हैं।"


“कौन विशाल, वो हमारे मोहल्ले के शुक्लाजी का बेटा?” बाबूजी ने आँखे तरेर कर पूछा।


“हाँ बाबूजी” सोनल ने लड़खड़ाती जुबान से काँपती आवाज़ में जवाब दिया।


सोनल की एक “हाँ” ने बाबूजी के हज़ारों सपनों को धराशायी कर दिया, उनकी जुबान निश्शब्द हो गयी और दिमाग में शून्य-सा छा गया। मन में उठा सैलाब जब कुछ शांत हुआ तो बाबूजी संयम बरतकर, भावुक होकर बोले “सोनल हमारा कोई बेटा नहीं, लेकिन मुझे कभी इस बात का मलाल नहीं रहा, बेटियों का पिता होना सदैव मेरे लिए गर्व का एहसास रहा है। तुम दोनों बहनें मेरा गुरुर हो। तुम्हारे जीवन पर हमारा कोई हक़ नहीं किन्तु एक पिता होने के नाते इतना जरूर कहूँगा कि ऐसा कोई काम न करना जिससे हमें अपनी परवरिशपर शर्मिन्दगी हो, मेरे गुरुर और मेरे स्वाभिमान पर ठेस पहुँचे, मैं गुमान से जिया हूँ, अब जिल्लत सहकर नहीं मरना चाहता“ कहकर बाबूजी फूट-फूटकर रोने लगे।


अपने पिता के मर्मस्पर्शी शब्दों को सुनकर और बेतहाशा रोते देखकर सोनल का अंतर्मन काँप उठा, अपने जीवन में पहली बार सोनल ने अपने पिता को इतना कमजोर, बेबस और मजबूर देखा। “बाबूजी, आपके इज़ाज़त और आशीर्वाद के बिना मैं दो कदम भी नहीं चली और आगे चल भी न पाऊँगी। ताउम्र मैं आपके स्वाभिमान को कभी आँच न आने दूँगी, यह एक बेटी का अपने पिता से वादा है, आप जो उचित समझे वही करे, मुझे सब मंजूर है” कहकर सोनल अपने कमरे में चली गई। इतना कठिन निर्णय लेते वक़्त सोनल रंचमात्र भी विचलित नहीं हुई, ऐसी धरती सी सहिष्णुता केवल बेटियों में ही पायी जाती हैं। बहरहाल सोनल के रिश्ते की बात आगे बढ़ी और बातचीत रिश्तेदारी में बदल गयी।


अगली शाम सोनल ने विशाल को मिलने बुलाया और सारी घटना विस्तार से सुना दी।सुनते ही विशाल को ऐसा लगा जैसे किसी ने उसकी साँसे ही रोक दी हो, उसकी रंगीन दुनिया अचानक ही बेरंग और जार-जार हो गई हो।


“तुम निहायत ही खुदगर्ज़ हो सोनल, केवल अपने बारे में सोचा, तुम्हारे लिए रिश्ते उन सूखे पत्तों की तरह है जो पतझड़ आते ही टूट जाते हैं, तुम मेरे जीवन का वो दाग़ हो जिसे मैं कभी भुला नहीं पाउँगा, मैंने तुम्हे समझने में बड़ी भूल की सोनल“ कहकर विशाल तूफ़ान की तरह वहाँ से निकल गया। तय अनुसार सोनल का ब्याह बड़े धूमधाम से संपन्न हो गया। विवाह के करीब दो महीने पश्चात् सोनल पगफेरों के लिए मायके आयी। भले ही उसके जीवन ने नया रुख़ ले लिया था, परन्तु पुराने ज़ख्मों के घाव अभी तक उसके मन मे ताज़ा थें, सोनल की आँखे विशाल को तलाश रही थी, वे उसकी एक झलक पाने को बेक़रार थी। विशाल के घर पर सन्नाटा छाया देख सोनल के जेहन में अजीब सी उथल- पुथल मच गई, आखिर उससे रहा न गया और उसने कौतूहलवश माँ से पूछ ही लिया “माँ, विशाल के घर में कोई नज़र नहीं आ रहा सब ठीक तो है ना?“


“कहाँ बेटा वो बेचारा विशाल तो एक महीने से अस्पताल में भर्ती है, डॉक्टरों ने जवाब दे दिया है, कहते हैं उसकी दोनों किडनियाँ ख़राब हो चुकी हैं,“ माँ ने व्यथित मन से सोनल के सर पर हाथ फेरते हुए उत्तर दिया। सुनते ही सोनल एक पल के लिए शून्य-सी हो गयी, उसका दिल जोरों से धड़कने लगा, उसके आँखों के सामने विशाल का चेहरा तैरने लगा और आँखों ने अश्कों की झड़ी बरसा दी।


डॉक्टरों ने विशाल के ऑपरेशन की तारीख तय कर दी, ऑपरेशन सफल हुआ और धीरे–धीरे विशाल की तबीयत में सुधार होने लगा। आज बड़े दिनों बाद विशाल का चेहरा दमक रहा था, आखिर आज उसे अस्पताल से छुट्टी जो मिलने वाली थी। अंतिम जाँच के लिए डॉक्टर विशाल के कमरे मे आये और जाँच करके बोले “एकदम फिट हो, अब तुम घर जा सकते हो।“


“थैंक्यू डॉक्टर“ कहकर विशाल ने अहसान भाव से पूछा, “डॉक्टर मुझे किडनी किसने डोनेट की? जिन्होंने मुझे नया जीवन दिया, मैं उस महापुरुष का नाम जानना चाहता हूं।“


“क्यों नहीं, किन्तु वे पुरुष नहीं महिला थी, उनका नाम सोनल श्रीवास्तव है“ डॉक्टर ने विशाल को जानकारी दी। सोनल का नाम सुनते ही विशाल के होशोहवास उड़ गए, ऑपरेशन की पीड़ा तो उसने सह ली, किन्तु यह पीड़ा वह बरदाश्त न कर सका और तकिये पर सर रखकर वह फूट-फुटकर रोने लगा, मन की सारी वेदनाएँ सैलाब बनकर आँसुओं के रूप में बाहर आ रही थी, रूह के रिश्तों की परिभाषा शायद आज उसे समझ में आयी थी।


अस्पताल से विशाल सीधे सोनल के घर पहुँचा, सामने सोनल के बाबूजी बैठे थे, विशाल को सामने देखते ही उन्होंने तुरंत उसे गले लगाया और मन हल्का होने तक बहुत रोये, जैसे काफी दिनों से भीतर भरा हुआ गुबार बाहर निकल आया हो।


“सोनल कल ही ससुराल चली गई बेटा, मुझे माफ़ कर दो। मुझे ज़िन्दगी में बड़े अनुभव हुए, किन्तु एक साठ साल के बुजुर्ग ने आज जाना की रिश्ते वो बड़े नहीं होते जो जन्म से जुड़े हो, रिश्ते वो बड़े होते हैं जो दिल से जुड़े हो। जीवन में सारे संबंधों को मैंने बखूबी निभाया लेकिन तुम दोनों के इस “अनोखे बंधन“ को ये बूढ़ी आँखें पहचान न पाई। मैं तुम दोनों का गुनेहगार हूँ, मेरी अक्षम्य भूल को हो सके तो माफ़ कर देना“ कहकर बाबूजी निढ़ाल होकर पुनः कुर्सी पर बैठ गए।

 

श्रेय

इस योगदान की समीक्षा एड्लिन डिसूजा द्वारा की गई है, मधुलिका अचंता द्वारा संपादित, प्रूफरीडिंग आकांक्षा पाण्डे द्वारा की गई है और फोटोग्राफी स्नेहा बोयपल्ली द्वारा की गई है।


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